Home 2019 February 27 दर्शन शास्त्र

दर्शन शास्त्र

दर्शन शास्त्र

आध्यात्म उन्नति के सात क्रम हैं उन्ही सात कर्मो के अनुसार वैदिक धर्म शास्त्रों को भी पूज्य महर्षियों ने सात श्रेणियों में ही विभक्त किया है। यह सातों दर्शन तीन भावों के अनुसार तीन भाव में विभक्त हैं।

न्याय और वैशेषिक दर्शन पदार्थवाद संबन्धीय 

योगदर्शन और सांख्य दर्शन सांख्य प्रवचन संबन्धीय
कर्म मीमांसा, देवी मीमांसा और ब्रह्म मीमांसा मीमांसा संबन्धीय

 

दर्शन शास्त्र के सिद्धांतों के तीन प्रकार को इस प्रकार भी समझ सकते हैं की प्रथम दो स्थूल विज्ञान, दुसरे दो सूक्ष्म विज्ञान और तीसरे तीनो कारण विज्ञानमय हैं। सभी सातों दर्शनों का मुख्य उद्देश्य दुःख नाश और नित्यानंद की प्राप्ति है। दर्शन शास्त्र जीव को दुखमय संसार से मुक्त कर आनदमय ब्रह्म धाम में पहुंचता हैं, इसलिए इनका नाम दर्शन शास्त्र है।

 

न्यायदर्शन

 

न्यायदर्शन महर्षि गौतम द्वारा रचित है, इसको आन्वीक्षिकी या अक्षपाद दर्शन भी कहते हैं। प्रमाद के द्वारा पदार्थों का निरूपण अथवा दूसरों को समझने के लिए प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनयन और निगमन इन पाँचों कारकों की अवतारणा का नाम न्याय है।

न्यायदर्शन को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं – तर्क, न्याय और दर्शन। तर्कांश में तर्क निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा आदि विषय हैं। न्यायअंश में प्रमाण आदि के विषय में चर्चा की गयी है और दर्शनांश में आत्मा अनात्मा की विवेचना है। न्यायदर्शन पांच अध्यायों में विभक्त है तथा इसका प्रतिपाद्य विषय सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान द्वारा दुःख निर्वर्ती है। आत्मा की शरीर में आसक्ति होने से अहं ज्ञान का उदय होकर आत्मा को दुःख होता है। अतः शरीर से आत्मा को पृथक कर देना ही इस दर्शन के अनुसार मुक्ति है।

 

वैशेषिक दर्शन

 

वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं। इसमें विशेषनामक एक अतिरिक्त पदार्थ स्वीकृत होने से इसका नाम वैशेषिक दर्शन हुआ है। वैशेषिक दर्शन में ३७० सूत्र हैं जोकि १० अध्यायों में विभक्त है। धर्म विशेष से उत्पन्न द्रव्य, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय इन छह पदार्थों के साधारण धर्म और विशेष धर्म द्वारा ज्ञानजनित तत्वज्ञान के द्वारा नि:श्रेयस लाभ होता है। इस प्रकार नि:श्रेयस लाभ का उपाय बताना ही वैशेषिक दर्शन का उद्देश्य हैं।

 

योग दर्शन

 

योगदर्शन महर्षि पतंजलि द्वारा कृत है. इसमें १३५ सूत्र हैं जिन पर भगवान् वेदव्यास ने भाष्य किया है। योग दर्शन के चार पाद हैं – समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्य पाद। समाधिपाद में योग का उद्देश्य और लक्षण, वृत्ति का लक्षण, योग का उपाय, फल और प्रकार भेद वर्णित हुआ है। साधन पाद में क्रियायोग, क्लेश कर्म और उसका दुःख का वर्णन है। विभूतिपाद में योग का अंतरंग परिणाम, संयम के द्वारा प्राप्त विभूति और विवेक से उत्पन्न ज्ञान का प्रतिपादन किया गया है। कैवल्य पाद में मुक्ति के योग्य चित्त, परलोक सिद्धि, बाह्यार्थ सद्भाव सिद्धि, चितरिक्त आत्मा की सिद्धि, धर्म मेघ समाधि, जीवनमुक्ति और विदेह कैवल्य का वर्णन है।

 

सांख्य दर्शन

 

सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल हैं। सांख्य प्रवचन के सूत्र छः अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में दुःख के कारणों का विवचेचन किया गया है, प्रकृति पुरुष है अविवेक अर्थात अभेद ज्ञान दुःख का हेतु है। द्वितीय अध्याय में प्रकृति का सूक्ष्म कारण और तृतीय अध्याय में स्थूल कार्य स्थूल शरीर और वैराग्य तत्व का निरूपण किया गया है। चतुर्थअध्याय में शास्त्रोक्त आख्याओं का उल्लेख कर विवेकज्ञान का उपदेश और पंचम अध्याय में परपक्ष का खंडन है। छठे अध्याय में शास्त्र के मुख्य विषयों की व्याख्या और शास्त्रार्थ का उपसंहार किया गया है।

अन्य दर्शनों की तरह सांख्यदर्शन का विषय दुःख निर्वृति है। संसार दुखमय है, पुरषार्थ के द्वारा वह दुःख दूर किया जा सकता है, ज्ञान ही परम पुरषार्थ है, ज्ञान के द्वारा मनुष्यों का दुःख नाश और मुक्ति लाभ होता है।

 

कर्ममीमांसा दर्शन

 

वेदों का प्रथम उपदेश कर्मकांड हैं, उस कर्मकांड की मीमांसा करने वाले दर्शनशास्त्र को कर्ममीमांसा दर्शन कहते हैं। कर्म साधारण और विशेष दो भागों में विभक्त होने के कारण कर्म मीमांसा के दो ग्रन्थ हैं एक के प्रधान आचार्य महर्षि जैमिनी हैं तथा दुसरे के प्रधान आचार्य महर्षि भरद्वाज हैं।

 

वेद के कर्मकांड का प्रतिपादक कर्ममीमांसा दर्शन है। इसको पूर्व मीमांसा भी कहते हैं। महर्षि जैमिनी इसके प्रवर्तक हैं। इसमें बारह अध्याय हैं। यज्ञ अग्निहोत्र, दान आदि विषय इसमें वर्णिंत हैं। इसके मत में वेदों में वर्णित केवल कर्मकांड ही सार्थक है। वेदों में जो तत्वज्ञान का उपदेश किया गया है, उसका उद्देश्य देह से भिन्न आत्मा का अस्तित्व प्रमाण करके जीव को अदृश्य स्वर्ग आदि के साधन रूप याग यज्ञ में प्रवृत करना है ऐसा जैमिनी मीमांसा का सिद्धांत है।

 

कर्मराज्य के साधारण विस्तार, साधारण गति और साधारण शक्ति के विज्ञानो का प्रतिपादक महर्षि भरद्वाज कृत कर्ममीमांसा दर्शन है। इस ग्रन्थ में अनेकों विज्ञान के रहस्य का वर्णन किया गया है। यह दर्शन शास्त्र चार भागों में विभक्त है। कर्म के अनादि, अनंत स्वरुप और कर्म के विस्तृत रूप कप समझने के लिए यह ग्रन्थ अत्यंत आवशयक है। इसके प्रथम पाद – धर्म पाद में धर्म के लक्षण, अंग, उपांग, ईश्वर का स्वरुप इत्यादि का वर्णन है। द्वितीय पाद – संस्कार पाद में संकर के लक्षण, विज्ञान, सृष्टि से संस्कार का सम्बन्ध, षोडश संस्कार का विज्ञान आदि का वर्णन है। तृतीय पाद – कर्म पाद में कर्म का स्वरुप, कर्म का वैज्ञानिक रहस्य, कर्म की गति, प्रवाह और विचित्रता आदि विषयों का वर्णन है। चर्तुथ पाद – मोक्ष पाद में कार्य और कारण ब्रह्म की एकता, बंधन और मोक्ष के कारणों का वर्णन है।

 

दैवीमीमांसा दर्शन

 

दैवीमीमांसा दर्शन के प्रतिपादन करने का विषय परमात्मा की आनंद सत्ता है और कहा गया है की आनंद सत्ता के सत और चित दोनों में ही व्यापक होने से सद्भाव और चिद्भव दोनों में ही आनंद भाव की प्राप्ति होती है। प्रथम पाद – रस पाद में दोनों और से प्राप्त होने वाली इसी आनंद सत्ता का ही वर्णन है। द्वितीय पाद का नाम उत्पत्ति पाद है। उत्पन्न होने वाले संसार के ले की विधि ना जाने से वैराग्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी कारण मरण व् उत्पत्ति के परिणाम में व्याप्त दुःख के अर्थ ही उत्पत्ति पद में वर्णित है। तृतीय पाद – उपासना पाद में ब्रह्म ज्ञान तथा परमज्ञान की प्राप्ति के उपाय का वर्णन है।

 

पराभाव या परमज्ञान को प्राप्त करना ही देवी मीमाँसा का अनुभव है। “यह जगत वे हैं” – यह कर्म मीमाँसा का अनुभव है। “वे ही यह जगत हैं” यह दैवी मीमाँसा का अनुभव है तथा “मैं ही वे हूँ” यह ब्रह्म मीमाँसा का अनुभव है।


ब्रह्ममीमांसा दर्शन

 

वेदोक्त ज्ञान काण्ड की प्रतिष्ठा ही ब्रह्म मीमांसा दर्शन का लक्ष्य है। इसे वेदांत दर्शन भी कहा जाता है। यह दर्शन सप्तम ज्ञान भूमि का होने के कारण अन्य सभी दर्शनों में श्रेष्ठ है। इसके प्रवर्तक महर्षि वेदव्यास हैं। वेदों के अंतिम अर्थात ज्ञानकांड का प्रतिपादक होने के कारण इस दर्शन को उत्तरमीमाँसा भी कहा जाता है और ब्रह्म ही इसका मुख्य प्रतिपाद्य होने के कारण इसे ब्रह्म मीमांसा भी कहते हैं।

 

वेदांत दर्शन में चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार चार पाद हैं। प्राथन अध्याय का नाम समन्वय है – इसमें स्पष्टज्ञापक श्रुतिसमूह, अस्पष्ट ब्रह्म भावात्मक श्रुतिसमूह आदि का वर्णन है। द्वितीय अध्याय का नाम अविरोध है – इसमें स्मृति तर्क आदि विरोध परिहार आदि विसयों के द्वारा विरोधी दार्शनिक मतों का खंडन करके युक्ति तथा प्रमाण के साथ महर्षि वेदव्यास ने वेदांत मत का अविरोध प्रतिपादन किया है। तृतीय अध्याय का नाम साधन है – इसमें आत्मा तथा ब्रह्म के लक्षण का निर्देश कर मुक्ति के साधनो का उपदेश है। चतुर्थ अध्याय- फल में जीवनमुक्ति, सगुन तथा निर्गुण उपासना के फल के तारतम्य पर विचार किया गया है। ब्रह्म मीमाँसा दर्शन का मुख्य उद्देश्यजीव तो दुखमय संसार से मुक्त करके आनंदमय ब्रह्मपद में स्थापित करना है।


इति दर्शनशास्त्र।

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

Author: मनीष

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *