Home 2019 February 27 नित्य एवं नैमित्तिक देवताओं में क्या अंतर है ?

नित्य एवं नैमित्तिक देवताओं में क्या अंतर है ?

नित्य एवं नैमित्तिक देवताओं में क्या अंतर है ?

सनातन धर्म शास्त्रों में नित्य देवता ओर नैमित्तिक देवता दो प्रकार के देवता कहे गये हैं।

 

नित्य देवता वे हैं, कि जिनका पद नित्य स्थायी है। वसुपद, रुद्रपद, आदित्यपद, इन्द्रपद, वरुणपद आदि पद नित्य हैं। ये पदसमूह केवल अपने ब्रह्माण्ड में ही नित्यस्थायी नहीं है, किन्तु ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड में देवता पद का नित्यरूप से रहना सम्भव है। ये पद नित्य होते है तथा कल्प और मन्वन्तरादि भेद से इनमें योग्य व्यक्ति अधिकार प्राप्त करते हैं और वे ही देवता क्रमशः उन्नत अधिकारों को भी प्राप्त करते रहते हैं। देवत्व पद मिलता कैसे है इसके विषय में महाभारत में कहा गया है:

 

हित्वा सुखं मनसश्च में प्रियाणि; तेन शक्रः कर्मणा श्रैष्ठ्यमाप।
सत्यं धर्मं पालयन्नप्रमत्तो; दमं तितिक्षां समतां प्रियं च ।।
एतानि सर्वाण्युपसेवमानो; देवराज्यं मघवान्प्राप मुख्यम्।।
(उद्योग पर्व ।२९ ।१२)

 

मन के प्रिय सुखों को त्याग कर, सत्य, धर्म, दम, तितिक्षा और समता के आश्रय से इन्द्र को मनुष्य शरीर से इन्द्रपद प्राप्त हुआ था ।

 

क्रतुभिस्तपसा चैवस्वाध्यायेन दमेन च।
त्रैलोक्यैश्वर्यमव्यग्रं प्राप्तोऽहंविकर्मेण च ।।
(आरण्यकपर्व।१८२। १२)

 

यज्ञ, तप, स्वाध्याय और दम के द्वारा इंद्र ने त्रिलोक का ऐश्वर्यं प्राप्त किया था।

 

नारायणोपनिषद्में लिखा है – यज्ञेन हि देवा दिवं गताः – यज्ञसे ही देवता को देवत्वपद मिलता है। इसी प्रकार ऋग्वेद (१।१११।१) में लिखा है- तक्षन् रथं सुकृतं विद्म नापसस्तक्षन् । हरीं इन्द्रवाहा वृषण्वसू । – आंगिरस के तीन पुत्र रथनिर्माण के कौशल से देवताओं को संतुष्ट कर देवत्व को प्राप्त हो गये थे।

 

परन्तु कभी कभी इन पदधारी देवताओं का भी पतन होता है, जैसा की महाभारत के अनुशासनपर्व में राजा नहुष के विषय में लिखा है की राजर्षि नहुष ने पुण्य कर्म फल से इन्द्रत्व पद प्राप्त किया था। इन्द्रत्व पाने पर इनको अत्यन्त अहंकार हो गया था और उन्होंने ऋषियों से ऋषियौ से अपनी पालकी उठवाना प्रारम्भ कर दिया था। एक बार अगस्त्य ऋषि पालकी उठा रहे थे, राजा नहुष ने अहंकार में उनके सिर पर लात मार दी। इस पर भृगु ऋषि ने नहुष को शाप किया कि तुम सर्प हो जाओ और नहुष सर्प होकर स्वर्ग से गिर पड़े।

 

नैमित्तिक देवता वह कहलाते हैं, जिनका पद किसी निमित्त से कायम किया जाता है। और उस निमित्त के नष्ट होनेपर वह पद भी उठ जाता है । नैमित्तिक देवताओं के उदाहरण में उदाहरण हैं ग्रामदेवता, गृहदेवता, वनदेवता आदि का पद।

किसी ग्राम की स्थापना होने के समय से लेकर जब तक ग्राम नष्ट न हो जाय तब तक ग्राम देवता का पद बना रहता है। एक वनस्थली की स्थापना होने के समयसे लेकर जब तक उस स्थान में वन का अधिकार पूर्णरूप से बना रहता है तब तक वनदेवता का पद बना रहता है और उसके बाद वह पद नष्ट हो जाता है।

 

गृहदेवता का पद भी इसी प्रकार का है। एक गृह के तैयार होने पर यदि गृहपति उस गृह में शास्त्रविधि के अनुसार गृहदेवता की स्थापना करे तो उस गृहदेवता के पीठ की स्थापना के समय से लेकर जब तक वह गृह बना रहता है और जब तक गृहस्थ की श्रद्धा गृह देवता की पीठ पर बनी रहती है तब तक उस गृहदेवता का पद बना रहता है और उसके पश्च्यात वह पद नष्ट हो जाता है ।

 

नैमित्तिक देवताओं के विषय में शास्त्रों में भी प्रमाण मिलते हैं । मत्स्यपुराण में गृहदेवताओं अर्थात् वास्तु देवतों के नामोल्लेख तथा पूजा का वर्णन मिलता है:

 

सर्ववास्तुविभागेषु विज्ञेया नवका नव।
एकाशीतिपदं कृत्वा वासुवित्सर्ववास्तुषु।।
पदस्थान्पूजयेद्देवांस्त्रिंशत्पञ्चदशैव तु।
द्वात्रिंशद्बाह्यतः पूज्याः पूज्याश्चान्तस्त्रयोदश।।
नामतस्तान्प्रवक्ष्यामि स्थानानि च निबोधत।
ईशानकोणादिषु तान्पूजयेद्धविषा नरः।।
शिखी चैवाथ पर्जन्यो जयन्तः कुलिशायुधः ।
सूर्यः सत्यो भृशश्चैव आकाशो वायुरेव च ।।

(२५३ अध्याय। २१-२४)

 

समस्त वास्तुविभाग में दोनों ओर नौ के हिसाब से एकाशीति (८१) वास्तु पद जानना चाहिये । इन पदों में स्थित बत्तीस और पंद्रह तथा बहिर्दिशा में बत्तीस और बीच में तेरह- इस प्रकारसे समस्त वास्तु देवताओं की पूजा करनी चाहिये । शिखी, पर्जन्य, जयन्त, कुलिशायुध, सूर्य, सत्य, भृश, आकाश, वायु, पूषा, वितथ, गृहक्षत, मय, गन्धर्व, भृङ्गराज, मृग, पितृगण इत्यादि वास्तु देवतागण है, जिनकी पूजा ईशानकोण में होती है।

 

महाभारत के अनुशासनपर्व में भी मतङ्गमुनि के विषय में भी यही वर्णन मिलता है कि मतंङ्गमुनि अनेक वर्षों तक कठिन तपस्या करनेपर भी देवत्वपद नही प्राप्त कर सके और इन्द्र के वर से छंद नामक नैमित्तिक देवता बने गये:

 

छन्दोदेव इति ख्यातः स्त्रीणां पूज्यो भविष्यसि।
कीर्तिश्च तेऽतुला वत्स त्रिषु लोकेषु यास्यति।।
एवं तस्मै वरं दत्त्वा वासवोऽन्तरधीयत।
प्राणांस्त्यक्त्वा मतङ्गोपि प्राप तत्स्थानमुत्तमम्।।
(अनुशासन पर्व। ५। २६-२७)

 

इन्द्रदेव ने मतंङ्ग को वर दिया -तुम छन्द नामक देवता वनोगे और स्त्रियाँ तुम्हारी पूजा करेंगी। त्रिलोक में तुम्हारी अत्यन्त कीर्ति होगी । इतना कहकर इन्द्रदेव अन्तर्धान हो गये और शरीर त्याग के उपरांत मतंङ्ग ऋषि छन्द देवता नामक उत्तम नैमित्तिक देवता के स्थान प्राप्त हो गये ।

। इति ।

 

।। ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

Author: मनीष

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