Home 2019 February 27 बुरा न मानो होली है !!!

बुरा न मानो होली है !!!

बुरा न मानो होली है !!!

भक्ति, प्रेम, रंग, हास्य, व्यंग, मनोविनोद तथा हर्षोउल्लास के पर्व होली की आपको व् आपके परिवार, मित्रों, एवं सुहृदयों को हर्दिक शुभकामनायें। फाल्गुन मास की पूर्णिमा में मनाये जाने वाले इस त्यौहार को फाल्गुन पूर्णिमोत्सव भी कहा जाता है।

होली से सम्बंधित दैत्यराज हरिण्याक्ष, भक्तराज प्रह्लाद तथा होलिका की कथा से प्राय: सभी परिचित है परन्तु होली की उत्पत्ति की उस कथा में होलिका दहन एक प्रकार से विष्णु भक्ति की विजय के रूप में प्रकट होता है जिसमे रंग, उबटन, हास्य, व्यंग्य तथा मनोविनोद का उल्लेख नहीं है। अतः क्या कारण है की होली में इन सब का समावेश हैं तथा सनातन धर्मी होली को इतने हर्षोउल्लास के साथ मनाते हैं? बुरा न मानो होली है का उदय कहाँ से हुआ?

इसका उत्तर भविष्य पुराण के उत्तर पर्व में वर्णित कथा (अध्याय १३२) में मिलता है। महाराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्री कृष्ण से पूछा : भगवन! फाल्गुन की पूर्णिमा को ग्राम ग्राम और नगर नगर में उत्सव क्यों मनाया जाता है और होली क्यों जलाई जाती है। क्या कारण है की बालक इस दिन घर में अनाप शनाप शोर मचाते हैं ? आप कृपा कर इसे बताने का कष्ट करें?

भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – पार्थ ! सतयुग में रघु नाम के प्रियवादी सर्वगुण संपन्न राजा थे। उन्होंने समस्त पृथ्वी को जीत कर सभी राजाओं को अपने वश में कर कर पुत्र की भांति राजा का लालन पालन किया। इनके राज्य में न तो दुर्भिक्ष पड़ता था, न कोई बीमारी आती थी और न ही अकाल मृत्यु होती थी। अधर्म में भी किसी की कोई रूचि नहीं थी। परन्तु एक दिन समस्त प्रजा त्राहि त्राहि पुकारती उनके राजद्वार पर पहुंची। राजा रघु पूछने पर लोगों ने बताया की महाराज !दुनधा की एक राक्षसी प्रतिदिन हमारे बालकों को कष्ट देती है। तंत्र – मन्त्र औषधि का उस पर कोई असर नहीं होता और कारण उसका कोई निवारण नहीं हो पा रहा।

नगरवासियों का यह वचन सुन कर विस्मित राजा रघु ने महर्षि वशिष्ठमुनि से उस राक्षसी के विषय में पूछा तब उन्होंने कहा – राजन ! माली नाम का एक दैत्य है, उसी की एक पुत्री है जिसका नाम है दुनधा। उसने बहुत समय तक उग्र तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न किया तथा उनसे वरदान माँगा की ‘प्रभो! देवता, दैत्य, मनुष्य आदि मुझे न मार सकें तथा अस्त्र शास्त्र आदि से भी मेरा वध न हो सके, साथ ही दिन में, रात्रि में, शीतकाल, उष्णकाल और वर्षा काल में भीतर अथवा बाहर मुझे किसी से भय न हो। भगवान् शंकर ने ‘तथास्तु’ कह कर यह भी कहा की तुम्हे केवल उन्मत्त बालकों से भय होगा। वही दुनधा नाम की कामरुपिणि राक्षसी नित्य बालकों और प्रजा को पीड़ा देती है।

दुनधा राक्षसी से पीछा छुड़ाने के उपाय में महर्षि विशिष्ठ ने कहा: राजन! आज फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सभी लोगों को निडर होकर क्रीड़ा करनी चाहिए तथा नाचना, गाना तथा हंसना चाहिए। बच्चे हाथ में लकड़ी की तलवार लेकर हर्षोउल्लास से युद्ध के लिए उत्सुक हो चल पड़ें। सूखी लकड़ी, उपले, सूखी पत्तियां आदि अधिक से अधिक एक स्थान पर इक्कठा कर कर उस ढेर में रक्षोघ्न मंत्रो से अग्नि प्रज्वल्लित करें। उस जलती हुई अग्नि की तीन बार परिक्रमा कर बच्चे, बूढ़े सभी आनद पूर्वक वार्तालाप करें और प्रसन्न रहें। इस प्रकार रक्षा मन्त्रों से, हवन करने से, कोलाहल करने से तथा तथा बालकों द्वारा तलवार के प्रहार के भय से उस राक्षसी का निवारण हो जाता है।

वशिष्ठ जी का यह वचन सुन कर राजा रघु ने सम्पूर्ण राज्य में इस प्रकार का उत्सव करने को कहा तथा उसमे सहयोग किया जिससे दुनधा राक्षसी विनष्ट हो गयी तथा प्रतिवर्ष दुनधा उत्सव की परिपाटी चल पड़ी। इसी दिन सभी रोगों को शांत करने वाले वसोर्धारा होम को करने के कारण इसे होलिका भी कहा जाता है।

महाराज युधिष्ठिर ने पूछा – भगवन ! दूसरे दिन चैत्र मास से वसंत ऋतु का आगमन होता है, उस दिन क्या करना चाहिए?

भगवान् श्री कृष्ण ने कहा : महाराज ! होली के दुसरे दिन प्रतिपदा में प्रातःकाल उठ कर नित्यक्रिया से निवृत होकर पितरों तथा देवताओं के लिए पूजन तर्पण करना चाहिए और सभी दोषों की शांति के लिए होलिका की विभूति की वंदना कर उसे अपने शरीर में लगाना चाहिए। इस दिन पूजा, वंदना तथा चन्दन प्राशन इत्यादि का भी विधान हैं।

इस प्रकार होली में कोलाहल, आनंद पूर्वक वार्तालाप, क्रीड़ा, हास्य व्यंग्य तथा होलिका विभूति के अनुलेपन की परिपाटी चली तथा ‘बुरा न मानो होली है’ का उदय हुआ।

परन्तु अत्यंत खेद का विषय है कि आनदमय रसों व् विविधता से पूर्ण त्यौहार को कुछ व्यक्ति केवल फूहड़ता एवं असभ्यता का परिचायक समझते हैं। ऋषि संतान होने का दावा करते हुए भी इस पवित्र त्यौहार में अश्लीलता का प्रदर्शन करते हैं तथा स्त्रीत्व का अपमान करने से भी नहीं चूकते।

हास्य, व्यंग, कोलाहल, क्रीड़ा तथा आनदपूर्वक वार्तालाप का अर्थ अश्लीलता, फूहड़पन का प्रदर्शन नहीं है। मनुष्यों में प्रेम, भक्ति, राक्षसों से रक्षा तथा आपसी सौहार्द फैलाना ही होली तथा होलिका का उद्देश्य है।

होलिका अग्नि की परिक्रमा करते समय आप ऋग्वेद वर्णित निम्न रक्षा मन्त्र का उच्चारण कर सकते हैं –

पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तैरराव्णः ।
पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठय ।।

हे महान दीप्तीवाले, चिरयुवा, अग्निदेव ! आप राक्षसों से हमारी रक्षा करें, कृपण धूर्तों से हमारी रक्षा करें तथा हिंसक एवं जघन्य कर्म करने वालों से रक्षा करें।

आप सभी को पुनः होली महोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें।

 

।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

 

Author: मनीष

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