Home 2019 February 28 पार्वती जी का नाम उमा कैसे पड़ा? पूजा के समय फूलों के साथ अशोक वृक्ष की पत्तियों का उपयोग पूजा के

पार्वती जी का नाम उमा कैसे पड़ा? पूजा के समय फूलों के साथ अशोक वृक्ष की पत्तियों का उपयोग पूजा के लिए या बंधनहार के रूप में क्यों किया जाता है?

पार्वती जी का नाम उमा कैसे पड़ा? पूजा के समय फूलों के साथ अशोक वृक्ष की पत्तियों का उपयोग पूजा के लिए या बंधनहार के रूप में क्यों किया जाता है?

कश्यप ऋषि के कहने पर गिरिराज हिमालय ने ब्रह्मा जी की करोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न हो कर ब्रह्मा जी ने गिरिराज हिमालय को दर्शन दे कर उनसे वर माँगने को कहा। गिरिराज हिमालय ने सब गुणों से सुशोभित संतान का वर माँगा जिसे पूर्ण करते हुए ब्रह्मा जी ने कहा “शैलेंद्र! इस तपस्या के प्रभाव से तुम्हारे यहाँ एक कन्या उत्पन्न होगी जिसके कारण तुम सर्वत्र कीर्ति प्राप्त करोगे। तुम्हारे यहाँ कोटि कोटि तीर्थ वास करेंगे । तुम सम्पूर्ण देवताओं से भी पूजित होगे तथा अपने पुण्य से देवताओं भी पावन बनाओगे।

ब्रह्मा जी के वरदान से गिरिराज की पत्नी मैना ने एक कन्या उत्पन्न की जिसका नाम अपर्णा रखा गया। अपर्णा ने भगवान शिव की प्राप्ति के लिए अत्यंत कठोर तपस्या की तथा बहुत समय तक निराहार रहीं। उनको ऐसी कठोर तपस्या करते देखकर उनकी माता ने मात स्नेह से दुखी होकर उनसे कहा ” अपर्णा ! उमा” (ऐसा मत करो)। माता के यों कहने पर कठोर तपस्या करने वाली अपर्णा अर्थात पार्वती देवी ‘उमा’ नाम से ही संसार में प्रसिद्ध हो गयी।

पार्वती देवी की तपस्या से तीनों लोक संतप्त हो उठे , तब ब्रह्मा जी ने जा कर उनसे कहा “देवी क्यों इस कठोर तपस्या से सम्पूर्ण जगत को संताप दे रही हो? कल्याणी ! स्वयं इस जगत को रचकर स्वयं ही इसका विनाश न करो। ऐसे किस अभीष्ट की तुम्हें इच्छा है बताओ ।”

देवी ने कहा “पितामह! मैं जिसके लिए यह तपस्या करती हूँ, उसे आप भली भाँति जानते हैं। फिर मुझसे क्यों पूछते हैं ?” तब ब्रह्मा जी ने पार्वती देवी से कहा कि जिन के लिए तुम इतना करोर तप करती हो वो शीघ्र ही आकर तुम्हारा वरण करेंगे। भगवान शंकर ही सर्वश्रेष्ठ पति है। वे देवताओं के भी देवता, परमेश्वर और स्वमभु हैं । उनकी समानता करने वाला कोई नही है।

ब्रह्मा जी से वचन पाकर पार्वती भी तपस्या से निर्वृत हो गयीं किंतु अपने आश्रम पर ही रहने लगीं। एक दिन जब वे अपने आश्रम पर अशोक वृक्ष का सहारा ले कर खड़ी थीं, देवताओं की भी पीड़ा दूर करने वाले भगवान शंकर पधारे। उनके ललाट में चंद्रकार तिलक लगा था, वे बाँह के बराबर नाटा तथा विकृत रूप धारण करके आए थे। उन्होंने आकर पार्वती से कहा “देवी मैं तुम्हारा वरण करता हूँ।” पार्वती जी योग सिद्धि से जान गयी की स्वयं भगवान शंकर पधारे हैं और उन्होंने शंकर जी का अर्ध्य, पाद्य और मधुपर्क से पूजन करके कहा की ” भगवान! मैं स्वतंत्र नही हूँ। कन्या धर्म के नाते घर में मैं अपने पिता के आधीन हूँ। इसलिए मेरे पिता ही मुझे देने में समर्थ हैं ।” यह सुनकर भगवान शंकर उसी विकृत रूप में गिरिराज के पास पहुँचे और उनसे कहा “शैलेंद्र। आप अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ कर दीजिए। जिस पर गिरिराज ने कहा की भगवान मेरा अपनी पुत्री का स्वयंवर करने की इच्छा है । मेरी पुत्री उसने जिसको वरण करेगी, उसी से उसका विवाह होगा।

गिरिराज के बात सुन कर भगवान शंकर ने देवी के पास आकर कहा “तुम्हारे पिता की तुम्हारा स्वयंवर करने की इच्छा है। स्वयंवर के समय किसी रूपवान को छोड़ कर तुम मेरा वरण कर सकोगी ?” यह सुनकर पार्वती जी ने कहा “महा भाग! आपको अन्यथा विचार नही करना चाहिए, मैं आपका ही वरण करूँगी और यदि आपको संदेह है तो मैं आपका यहीं वरण करती हूँ ।” ऐसा कहकर पार्वती ने अपने हाथों से अशोक के पत्तों का गुच्छा ले कर महादेव के कंधे पर रख दिया और कहा “देव! मैंने आपका वरण कर लिया।” भगवती पार्वती के प्रकार वरण करने पर भगवान शंकर ने उस अशोक वृक्ष को अपनी वाणी से सजीव करते हुए कहा “अशोक ! तुम्हारे परम पवित्र गुच्छे से मेरा वरण हुआ है। इसलिए तुम जरा अवस्था से रहित एवं अमर रहोगे । सब कामनाओं देने वाले एवं मेरे अत्यंत प्रिय होगे । तुममें सब प्रकार की सुगंध रहेगी तथा तुम देवताओं के भी अत्यंत प्रिय बने रहोगे।

ऐसा कह कर जगत की सृष्टि और सम्पूर्ण भूतों का पालन करने वाले भगवान शंकर गिरिराज कुमारी उमा से विदा लेकर अन्तधर्यान हो गए।

॥ ॐ नमो भगवते वसुदेवाय:।।
(संदर्भ :श्री ब्रह्म पुराण । अध्याय ३३)

Author: मनीष

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