Home 2021 August 16 वन्दे मातरम् महामन्त्र का विरोध क्यों? क्या जननी जन्मभूमि के प्रति प्रेम और श्रद्धा प्रदर्शित

वन्दे मातरम् महामन्त्र का विरोध क्यों? क्या जननी जन्मभूमि के प्रति प्रेम और श्रद्धा प्रदर्शित करना धार्मिक आस्थाओं के विरुद्ध हो सकता है ?

वन्दे मातरम् महामन्त्र का विरोध क्यों? क्या जननी जन्मभूमि के प्रति प्रेम और श्रद्धा प्रदर्शित करना धार्मिक आस्थाओं के विरुद्ध हो सकता है ?

वन्दे मातरम् महामन्त्र का विरोध क्यों? क्या जननी जन्मभूमि के प्रति प्रेम और श्रद्धा प्रदर्शित करना धार्मिक आस्थाओं के विरुद्ध हो सकता है ?
आज भी यह प्रश्न कई बार उठता है कि क्या वन्दे मातरम केवल हिन्दुओं का गीत है ? अनेक घटनाओं से आप्लावित यह गीत जिसने भारतवासियों को मूर्छा से जगाया, अंग्रेजों की चापलूसी छोड़ कर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए प्रेरित किया, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की, क्या वह गीत श्री बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने केवल दुर्गा माता की स्तुति के लिए लिखा था?
वन्दे मातरम्’ का साधारण अर्थ है ‘मां की वन्दना’। सामान्य पारिभाषिक अर्थ में यह कोई धार्मिक गीत नही है । इसकी सामग्री न तो हिन्दू है, न मुस्लिम । कविता की श्वास प्रश्वास तीव्रतम राष्ट्र प्रेम से ओत प्रोत है। इसमें जिस मां का ध्यान किया गया है, वह कोई प्रथागत धार्मिक देवी नहीं है, बल्कि वह मातृभुमि है जिसमें हम रहते हैं, जो गतिशील है और जिससे हमारा अस्तित्व है। यह मातृभूमि केवल एक भूखण्ड मात्र नहीं है, बल्कि जीवंत इकाई है जो अपनी सन्तान के माध्यम से अपना लक्ष्य प्राप्त करती है। ऋषि बंकिम ने देशभक्ति के धर्म का आविष्कार किया और उसे वन्दे मातरम् मे अमरवाणी प्रदान की।
वन्दे मातरम् गीत का एक मात्र लक्ष्य है प्रत्येक भारतीय के ह्रदय में देश भक्ति की भावना जागृत करना। यह गीत भारत को माँ मानता है और उसकी प्रशंसा के गीत गाता है। ऋषि बंकिम ने भारत माता में वह सभी सद्गुण देखे जो कोई भी अपनी माँ में देखता है। जैसे हम अपनी माँ की वंदना करते है, उसी प्रकार यह गीत भी भारत माता की भावभीनी वंदना है।
दुर्भाग्य का विषय है कि कुछ लोगों ने केवल अपने राजनितिक फायदे के लिए तोड़ मरोड़ करत तथा बुतपरस्ती का लांछन लगा कर इस सर्वांग सुन्दर गीत को साम्प्रदायिक कहा है और मुसलमनों की लिए इस मन्त्र के प्रयोग का निषेध किया है परन्तु क्या वास्तव में ‘वन्दे मातरम्’ कहना सांप्रदायिक है?
देश को माँ कह कर संबोधित करने में किसी भी देश वासी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अनेकों अरबी और फारसी के कवियों तथा लेखकों ने अपनी रचनाओं में देश को माँ कहा है और यहाँ तक की बुतपरस्ती के भाववाली अनेक कविताएँ भी लिखी हैं। इकबाल, हाफिज अली, उमर खैय्याम इत्यादि इनमे से कुछ उदाहरण हैं। इसी प्रकार इन भाषाओं में अनेकों शब्द जननी जन्भूमि के प्रति श्रद्धा दर्शाने में लिए भी उपयोग में लाए जाते हैं। उम्मुलकोरा (ग्राम्य जननी) , ‘उम्मुल मोमेनीन’ (विश्वासियों की जननी) और उम्मुल केताब (ग्रन्थ जननी) कुछ ऐसे ही शब्दों के उदाहरण हैं। ‘वन्दे मातरम’ भी ऐसा ही शब्द है।
बुतपरस्ती समझ कर जो वन्दे मातरम् जैसे सर्वांग सुन्दर गीत की धार्मिक आधार पर आलोचना करने हैं उनका वास्तविक उद्देश धार्मिक न होकर केवल राजनीतिक है और अत्यंत दुःख का विषय है की स्वतंत्रता प्राप्त करने के ७५  वर्षों बाद भी भारत के राजनीतिज्ञ केवल उसी ‘फूट डालो और राज करो’ के वृक्ष के फल खा कर जिन्दा हैं, जिसके बीज अंग्रेजों ने भारत माता की छाती पर बोए थे। परन्तु वह यह भूल जाते हैं की भारत देश में रहते हुए, भारतीय भाषाओं के साधारण अर्थ में ही किसी शब्द का भाव ग्रहण किया जा सकता है और इस प्रकार अर्थ करने पर ‘वन्दे मातरम’ किसी भी प्रकार से किसी धर्म विशेष के आदर्शों के विरुद्ध नहीं हो सकता और इस प्रकार वन्दे मातरम् गीत का साधारण अर्थ निकलता है – हे मेरी माता भारत भूमि, मैं तुम्हारी वंदना करता हूँ। संस्कृत अथवा हिंदी भाषा में वंदना शब्द का अर्थ होता है – स्तुति करना, गुणगान करना। इसलिए उर्दू में इसका सरल अर्थ होगा ‘ ऐ मादरे वतन, मैं तुझे सलाम करता हूँ। सलाम किसी की पूजा करने की लिए नहीं किया जाता अपितु दुसरे मनुष्य के प्रति अपनी श्रद्धा, आदर प्रकट करने के लिए किया जाता है। सलाम करना, गुणगान करना किसी की पूजा अर्थात इबादत करना नहीं है। विशव भर का मुस्लिम समाज यदि केवल अरबी भाषा का प्रयोग करता तो शब्दों का सही अर्थ जानने में इतनी कठिनाई नहीं आती परन्तु प्रयेक देश में जाकर मुस्लिम समाज ने उस देश की भाषा को अपनाया है, अब ऐसी दशा में उन देशों की भाषा में विभिन्न शब्दों का प्रयोग अथवा अर्थ उस देश की भाषा के अनुसार ही करना पड़ेगा। इसलिए वन्दे मातरम् गीत में आपत्ति करने जैसा कुछ है ही नहीं।
अंग्रेजों से देश को स्वतंत्र करवाना केवल हिन्दुओं का कर्तव्य नहीं था अपितु समस्त भारतवासियों का कर्तव्य था और इसके लिए सर्व प्रथम आवश्यकता थी की प्रत्येक देशवासी के हृदय में देश के प्रति प्रेम उत्पन्न करने की और इस कसौटी पर वन्दे मातरम् सम्पूर्णत: खरा उतारता है। क्रान्तिकारियों को इस प्राणवन्त मन्त्र की अनुभूति क्या हुई, उनमें भारत माता के प्रति अटूट निष्ठा जाग्रत हो गयी। प्राणों का मोह उनमें से सर्वथा जाता रहा, हंसते-हंसते छाती पर गोलियों की बौछार को झेल लेना उनके लिये एक अभिलाषित खेल हो गया। कितने ही ‘आजादों’ और ‘सिंहों’ और ‘खानों’ ने ‘वन्देमातरम्’ को देशभर में गूंज मचाकर देशभक्त किन्तु पद-दलित हताश भारतीयों के हृदय में आशा और उत्साह की किरणें जागृत कर दीं। वन्दे मातरम् ने सभी सम्प्रदायों के ह्रदय में देशभक्ति की अद्वितीय भावना जागृत की तथा स्वतंत्रता संग्राम ने अभूतपूर्ण भूमिका निभाई।
वन्दे मातरम् गीत को सम्पूर्ण रूप से समझने पर स्पष्ट पता चलता है कि देश घर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने के लिए ही इस गीत की रचना हुई थी। इस गीत का मुख्य उद्देश्य है – जन जन में देशप्रेम की भावना जागृत करना। ‘वन्दे मातरम्’ गीत को इस्लाम के विरुद्ध बताने वाले इस्लाम धर्म के आलिम फाजिल नहीं थे, जो कुरान-हदीस में वर्णित सभी आचरणों का अक्षरक्ष: पालन करते थे अपितु कोट पैंट पहनने वाले अंग्रेजों की नक़ल करने वाले बैरिस्टर और राजनीतिज्ञ थे, जिनका इस्लाम के आदर्शों के साथ साक्षात् अथवा परोक्ष रूप से भी संबंध नहीं था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण यह था की 1906 से 1920 तक जो मौलाना अकरम खां और जिन्नाह जैसे राजनेता वन्दे मातरम् गीत स्वयं गाते रहे, इसके भक्त रहे, वही राजनेता मुस्लिम लीग से जुड़ते ही राजनीतिक लाभ के लिए इसके विरोधी हो गए।
वन्दे मातरम् गीत की जिन पंक्तियों का सबसे अधिक विरोध किया जाता रहा है वह हैं ‘तवं ही दुर्गा दश प्रहरणवारिणी’ और ‘तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे’ जिसको भ्रमवश हिन्दू देवी देवताओं की स्तुति के रूप में प्रचारित कर इस्लाम विरोधी बताया जाता रहा है। परन्तु ऐसा है नहीं, इस गीत में देश रुपी माता को हिन्दू देवियों से ऊंचा स्थान दिया गया है और कहा गया है की हे भारत माता आप ही दस हाथों वाली दुर्गा माता हो और आप की ही प्रतिमा प्रत्येक मंदिर में स्थापित है। भारत माता ही दुर्गा हैं, भारत माता ही काली हैं और भारत माता ही सरस्वती हैं। इस प्रकार यदि किसी धर्म को इस गीत से आपत्ति होनी चाहिए थी तो वह सनातन हिन्दू धर्म को होनी चाहिए थी, क्योंकी सनातन धर्मो यह कह सकते थे कि क्या हमारे तैतीस कोटि देवी देवता कुछ भी नहीं हैं, केवल भारत माता ही सब कुछ हैं? जो स्थान देवी देवताओं का हो सकता है, वह भारत माता का कैसे हो सकता है? परन्तु सनातन धर्म साधकों ने विश्व प्रकृति, विश्व जननी की, देशरूपणि अजेय शक्ति की कामना माता के रूप में ही की है और इसीलिए ऋग्वेद पृथ्वी को माता के रूप में प्रतिपादित करता है: द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम ॥ ( ऋग्वेद ,1 /164 /33 ) अर्थात आकाश पिता है , समूचा वातावरण बंधु है और यह रत्नगर्भा पृथ्वी हमारी माता है।
आनंद मठ उपन्यास में महेंद्र के सामने जब इस भारत माँ के स्वरुप का वर्णन किया गया तो उसने चकित होकर कहा– यह तो देश है, माँ नहीं अर्थात देश मातृ शक्ति से ऊंचा कैसे हो सकता है? उत्तर में भवानन्द ने कहा– हाँ, यही मेरी मां है, जन्म भूमि ही मेरी माँ है। वास्तव में जो देश को अपना सर्वस्व मान कर अपने आप को देश पर न्योछावर कर देते हैं उनके लिए देश ही सब कुछ हैं। इसलिए वन्दे मातरम् कहते हुए अशफाक उल्ला खान ने ख़ुशी ख़ुशी फांसी के फंदे का वरण कर लिया था। अनेक लोगों का यह विश्वास है कि स्वदेश प्रतिमा का सत्वन करने के लिए आनंद मठ में वन्दे मातरम् का सृजन किया गया था परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि आनंद मठ की कल्पना से बहुत पहले वन्दे मातरम् का उदय हो गया था।
कलकत्ता के देशवन्धुपार्क में २२ अगस्त १९४७ को एक भाषण में महात्मा गांधी ने भी कहा था :
“वन्दे मातरम्, यह कोई धार्मिक नारा नहीं था। यह विशुद्ध राजनीतिक नारा था। कांग्रेस को इसका परीक्षण करना पड़ा था। इसकी बावत गुरुदेव की राय मांगी गयी थी और कांग्रेस को कार्यकारिणी के सभी हिन्दू तथा मुसलमान सदस्यों को इस निष्कर्ष पर आना पड़ा था कि इसकी प्रारम्भिक पंक्तियां किसी भी प्रकार की आपत्ति से मुक्त हैं । सभी उचित अवसरों पर सबको मिलकर इसे गाना चाहिये। यह कभी भी मुसलमानों को अपमानित करने या नाराज करने वाला गीत नहीं होना चाहिये । याद रखना चाहिये कि इसी नारे ने राजनीतिक बंगाल को प्रज्ज्वलित किया था। बहुत से बंगालियों ने इस नारे को लगाते हुए राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिये अपने प्राण अर्पित कर दिये। भारतमाता की वन्दना के रूप में वन्देमातरम् के प्रति मेरी भावना गहरी है। राष्ट्रगान वन्देमातरम् और बगाल का राष्ट्रीय नारा जिसने उस समय जब सारा भारत लगभग सुसुप्त था, उसे जीवित रक्खा और जहाँ तक मुझे ज्ञात है बंगाल के हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ने स्वीकार किया था।“
अत्यंत पीड़ा का विषय है कि जिस गीत के कारण सदियों से सुप्त देश जाग उठा था, जिस गीत के कारण क्रांतिकारियों ने देश के जन साधारण के लहू में उबाला ला दिया था, जिस गीत को स्वतंत्रता से पहले राष्ट्र गीत का दर्जा प्राप्त था और जिसकी गूँज ब्रिटिश पार्लियामेंट तक में सुनाई दी थी, उसी गीत को इस्लाम विरोधी करार दिया गया और केवल तुष्टिकरण की ओछी राजनीती के लिए गीत के मूल स्वरुप में भी कांट छांट की गई और जब इससे भी काम नहीं चला तो राष्ट्र गान के रूप में भी इस अद्वितीय गीत को अस्वीकार कर दिया गया।
परन्तु चिंगारी को चाहे भी जितना दबाया जाए वह सदैव प्रज्वल्लित रहती है और अग्नि के रूप में प्रकट भी होती रहती है। यही कारण है की ‘वं देहि मातरम्’ की व्युत्पत्ति पर आधारित ‘वन्दे मातरम्’ महामंत्र आज भी जन साधारण के रूप में मातृ भूमि के प्रति प्रेम उत्पन्न करता रहता है और प्रत्येक भारत वासी को भारत माता के प्रति समर्पण की भावना से प्रेरित करता रहता है। तो आइए आनंद मठ उपन्यास के पात्र भवानन्द की भांति धर्म, जाति समाज से ऊपर उठ कर, केवल भारत माता को अपनी माँ मानकर, भारत को विश्वशक्ति बनाने का प्राण लें तथा पुरजोर से कहें –
वन्दे मातरम्। वन्दे मातरम्। वं देहि मातरम्।
श्री बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित वन्दे मातरम गीत का मूल रूप, जिसमे तुष्टीकरण कि नीति के चलते के चलते वर्ग विशेष को खुश करने के लिए अत्यधिक कांट छाँट की गई :
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम् मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम् मातरम्।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम् फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥
कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
बला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम्॥ २॥
तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति, हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलाम्, अमलां अतुलाम्.
सुजलां सुफलाम् मातरम्॥४॥
वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्, सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम्॥ ५॥
वन्दे मातरम्
जय हिन्द जय हिन्द की सेना
जय श्री राम
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

Author: मनीष

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