Home 2019 February 28 दशग्रीव का नाम ‘रावण’ कैसे पड़ा ? रावण ने शिव तांडव स्त्रोत्र की रचना कब और क्यों की ?

दशग्रीव का नाम ‘रावण’ कैसे पड़ा ? रावण ने शिव तांडव स्त्रोत्र की रचना कब और क्यों की ?

दशग्रीव का नाम ‘रावण’ कैसे पड़ा ? रावण ने शिव तांडव स्त्रोत्र की रचना कब और क्यों की ?

रावण ऋषि विश्रवा और कैकसी का पुत्र था। जन्म के समय उसकी शर्रीरिक बनावट अत्यंत विकराल थी, उसके दस मस्तक, बड़ी बड़ी दाढ़ें, तांबे जैसे होंठ, बीस भुजाएं, विशाल मुख और चमकीले केश थे। उसके पैदा होते समय अत्यंत भयंकर परिस्थितियां उत्पन्न हुई। उसके दस मस्तक देख कर उसके पिता विश्रवा मुनि ने उसका नामकरण “दशग्रीव” किया क्योंकि वह दस ग्रीवाएं ले कर उत्पन्न हुआ था।

अपने भाई कुबेर के समान धन एवं वैभव पाने के लिए दशग्रीव ने दस हज़ार वर्षों तक ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए अत्यंत दुष्कर तपस्या की। उस कठोर तपस्या में प्रत्येक सहत्र वर्ष की समाप्ति के बाद दशग्रीव ने अपने एक मस्तक की बलि चढ़ाई। नौ हज़ार वर्षों की समाप्ति पर ब्रह्मा जी ने दशग्रीव को अजेय होने का दुर्लभ वर प्रदान किया। ब्रह्मा जी के वर के प्रभाव से दशग्रीव ने अपने भाई कुबेर को परास्त कर पुष्पक विमान को प्राप्त किया।

युद्धोपरांत कैलासपर्वत से उतारते समय राक्षसराज दशग्रीव “शरवण” नाम से प्रसिद्ध सरकंडो के विशाल वन में गया, जहाँ महासेन कार्तिकेय की उत्पत्ति हुई थी। वहां पहुँच कर दशग्रीव ने स्वर्णमयी कांति से युक्त उस विशाल वन को देखा जो किरण समूहों से व्याप्त होने के कारण दुसरे सूर्यदेव के सामान प्रकाशित हो रहा था।

उसके पास ही एक पर्वत था जहाँ की वनस्थली अत्यंत रमणीय थी। जब दशग्रीव ने उस पर्वत पर चढ़ने का प्रयत्न किया तो पुष्पक विमान की गति अचानक रुक गयी जिससे दशग्रीव अत्यंत अचंभित हो कर पुष्पक विमान की गति रुकने के कारण पर विचार करने लगा। उसी समय भगवान् शिव के प्रमुख गण नंदीश्वर रावण के पास आ पहुंचे और उन्होंने दशग्रीव से कहा “दशग्रीव ! लौट जाओ ! इस पर्वत पर भगवन शंकर विहार करते हैं। यहाँ सुपर्ण, नाग, यक्ष, देवता, गन्धर्व और राक्षस समेत समस्त प्राणिओं का आवागमन बंद कर दिया गया है।

परन्तु महाबलि दशानन ने महामना नंदीश्वर के उन वचनों की कोई परवाह नहीं की तथा उनसे कहा ” जिसके कारण यात्रा करते समय मेरे इस पुष्पक विमान की गति रुक गयी, तुम्हारे इस पर्वत को मैं जड़ से उखाड़ दूंगा। किस प्रभाव से शंकर यहाँ आ कर राजा की भांति विहार करते है? क्या उनको इसका भी पता नहीं की इनके समक्ष भय का स्थान उपस्थित है ?”

ऐसा कह कर दशग्रीव ने पर्वत ने निचले भाग में अपनी भुजाएं लगाईं और उसे शीघ्र उठा लेने का प्रयत्न्न किया। पर्वत के हिलने से समस्त गण भयभीत हो उठे। तब समक्ष देवताओं में श्रेष्ठ पापहारी महादेव ने अपने एक पैर के अंगूठे से उस पर्वत को दबा दिया। दशग्रीव की समस्त भुजाएं जो पर्वत ने खम्बों के सामान जान पड़ती थीं उसके नीचे दब गयीं। अत्यंत पीड़ा से व्याकुल होकर उस राक्षस ने सहसा बड़े जोर से विराव – रोदन अथवा अंतर्नाद किया जिससे तीनो लोकों के प्राणी कांप उठे।
ऐसा होने पर दशानन के मंत्रियों ने उससे कहा – महाराज आप नीलकंठ उमावल्लभ महादेव की स्तुति करके महादेव को संतुष्ट कीजिये। वह अत्यंत दयालु है। वह संतुष्ट हो करआप पर अवश्य दया करेंगे। मंत्रियों के ऐसा कहने पर दशग्रीव ने अनेक प्रकार के स्त्रोतों और वेदोक्त मन्त्रों द्वारा भगवन शिव का स्तवन किया और इस प्रकार हाथों के पीड़ा और स्तुति करते हुए एक सहस्त्र वर्ष बीत गए।
दशग्रीव की स्तुतिओं से प्रसन्न हो कर भगवान् महादेव प्रसन्न हो गए और उन्होंने उस पर्वत से अपने पैर के अंगूठे का प्रभाव उठाकर दशग्रीव की भुजाओं को उस संकट से मुक्त करते हुए कहा – “दशानन! तुम वीर हो। तुम्हारी उपासना से मैं प्रसन्न हूँ। तुमने पर्वत से दब जाने के कारण जो अत्यंत भयानक राव (अंतर्नाद) किया था उससे तीनो लोकों के प्राणी विचलित हो गए थे। इसलिए राक्षसराज ! अब तुम “रावण” के नाम से प्रसिद्ध होंगे, देवता, मनुष्य, यक्ष तथा दुसरे सब लोग जो इस भूतल पर निवास करते हैं तुम दशग्रीव को अब “रावण” के नाम से जानेंगे।
इस प्रकार भगवान् शिव से अभय पाकर दशग्रीव या दशानन “रावण” नाम से प्रसिद्ध हुआ।
(सन्दर्भ : श्रीमद वाल्मीकियरामायणे, उत्तरकांडे, षोडश: सर्ग:)
कहा जाता है इसी समय रावण ने शिव ताण्डव स्तोत्रम् की रचना शिवजी की उपासना के लिए की थी जो इस प्रकार है:

रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्रम्
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्ग मालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥१॥
जिन शिव जी की सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित करती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें

जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही गंगाजी की लहरे उनके शीश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढता रहे।

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
जो पर्वतराजसुता(पार्वती जी) के विलासमय रूप पर परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे।

जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥
मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूँ जो सभी प्राणियों के आधार एवं रक्षक हैं, जिनके जाटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभासमूह रूप केसर की कातिं समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गजचर्म से विभुषित हैं।

सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
जिन शिव जी का चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों के धूल से रंजित हैं (जिन्हे देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पन करते हैं), जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभी देवों द्वारा पूज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्दी प्रदान करें।

करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव प्रकृति रुपी पार्वती जी के सृजन में अति चतुर है, उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
जिनका कण्ठ नवीन मेंघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभि प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करें।

प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभुषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खो का अंत करने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढी हूई प्रचंण अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टुकडों, शत्रु एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
देवांगनाओं के सिर में गुंधे पुष्पों की मालाओं से झड़ते हुए सुगंधमय राग से मनोहर परमशोभा के धाम महादेव जी के अंगो की सुन्दरताएं परमानन्दयुक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढाती रहे।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥
प्रचण्ड वडवानल की भांति पापों को भष्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्टमहासिध्दियों तथा चंचल नेत्रों वाली कन्याओं से शिव विवाह समय गान की मंगलध्वनि  सब मंत्रों में परमश्रेष्ट शिव मंत्र से पूरित, संसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पायें||

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्रोत को नित्य पढने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो, परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है

॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
।।ॐ नमः शिवाय।।
।।ॐ नमो भगवते वासुदेवाय:।।

Author: मनीष

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