Home 2019 February 28 यदि श्री राम सेतु स्वयं भगवान राम ने बनवाया था और समुद्र देवता ने उसको बनवाने में सहयोग दिया था

यदि श्री राम सेतु स्वयं भगवान राम ने बनवाया था और समुद्र देवता ने उसको बनवाने में सहयोग दिया था तो वह खंडित कैसे हो गया? Google map पर भी राम सेतु खंडित नज़र आता है। स्वयं सृष्टि के पालनहार द्वारा बनवाया हुआ पुल कैसे टूट सकता है?

यदि श्री राम सेतु स्वयं भगवान राम ने बनवाया था और समुद्र देवता ने उसको बनवाने में सहयोग दिया था तो वह खंडित कैसे हो गया? Google map पर भी राम सेतु खंडित नज़र आता है। स्वयं सृष्टि के पालनहार द्वारा बनवाया हुआ पुल कैसे टूट सकता है?

सर्वप्रथम हमारे बंधु श्री अमरीश तिवारी जी का धन्यवाद जिन्होंने अति उत्तम, रोचक और ज्ञानवर्धक सवाल पूछा। इसका उत्तर तथा वर्णन पद्मपुराण में इस प्रकार मिलता है :

धर्म के मार्ग पर स्थित रहने वाले प्रभु श्री रामचंद्र जी ने मन ही मन विचार किया की राक्षस कुलोत्पन्न राजा विभीषण लंका में रहकर धर्मोचित्त राज्य करते रहें, उसमें किसी प्रकार की बाधा ना पड़े इसके लिए क्या उपाय हो सकता है। मुझे चल कर उनके हित की बात बातें चाहिए, जिससे उनका राज्य सदा बना रहे। श्री रामचंद्र जी जब इस प्रकार विचार कर रहे थे, उस समय भरत जी वहाँ आए और उन्होंने उनसे पूछा की श्री श्रेष्ठ , आप क्या सोच रहे है।, यदि कोई गुप्त बात ना हो तो मुझे भी बताने की कृपा करें। इस पर श्री रघुनाथजी बोले की तुमसे और लक्ष्मण मेरी कोई बात छिपाने योग्य नहीं है। इस समय मेरे मन में बस यही विचार चल रहा है की विभीषण देवताओं साथ कैसा बर्ताव करते हैं, क्योंकि देवताओं के हित धर्म की रक्षा के लिए ही मैंने रावण का वध किया था। इसलिए वत्स ,मैं वहाँ जा कर देखना चाहता हूँ की विभीषण धर्मोचित्त राज्य कर रहें है या नहीं । लंका पुरी जा कर राक्षसराज को उनके कर्तव्य का उपदेश करूँगा।

भगवान श्री राम के ऐसा कहने पर भरत जी ने कहा भगवन मैं भी आपके साथ जा कर देखना चाहता हूँ की लंका की यात्रा आपने किस प्रकार की थी। इस पर श्री राम ने लक्ष्मण जी को अयोध्या की रक्षा करने का आदेश दिया और पुष्पक विमान से भरत के साथ उन्होंने यात्रा आरम्भ की ।

सर्वप्रथम उन्होंने गांधार देश में राज्य कर रहे भरत जी के पुत्रों के राज्य कार्य का निरीक्षण किया तत्पश्चात पूर्व दिशा में जा कर लक्ष्मण जी के पुत्रों से मिले और उसके पश्चात महर्षि भारद्वाज और अत्रि मुनि के आश्रम जा कर उन्हें नमस्कार कर दक्षिण दिशा के यात्रा की ।

दक्षिण दिशा में सर्वप्रथम वे जनस्थान पहुँचे जहाँ दुरात्मा रावण ने जटायु का वध किया था और श्री राम का कबंध से भयंकर युद्ध हुआ था। उसके पश्चात वे किष्किन्धा पुरी में सुग्रीव को साथ लेकर उत्तर तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँच कर श्री राम भरतजी से बोले – यही वह स्थान हैं जहाँ विभीषण मेरी शरण में आए थे और इस समुद्र तट पर मैं इस आशा से रुका रहा की समुद्र अपना कुटुम्बि जान कर मुझे रास्ता देगा परंतु तीन दिन प्रार्थना करने बाद भी जब समुद्र ने दर्शन नहीं दिए तो मैंने उसे सुखाने के लिए बाण चढ़ा लिया। इससे समुद्र को बहुत भय हुआ और अनुनय विनय के बाद समुद्र ने मुझे पुल बाँधकर महासागर पार जाने का विचार करने को कहा। तब मेरे कहने पर वानरसेना ने तीन दिनो में ही इस कार्य को पूरा कर लिया। पहले दिन उन्होंने चौदह योजन तक का पुल बांधा, दूसरे दिन छत्तीस योजन तक और तीसरे दिन सौ योजन तक का पुल तैयार कर दिया।

इसके पश्चात प्रभु श्री राम ने लंका की यात्रा की जहाँ राक्षसराज विभीषण ने अभिवादन करके तथा भरत जी और सुग्रीव से गले मिल कर उनका स्वागत किया और लंका पुरी में प्रवेश करवाया और सब प्रकार के रत्न से सुशोभित रावण के जगमगाते हुए आसान पर उनको विराजमान किया। लंका पुरी में प्रभु श्री राम ने विभीषण और उनके मंत्रिमंडल को धर्मोचित व्यवहार का उपदेश दिया तथा रावण की माता कैकेसी और विभीषण की पत्नी सरमा को दर्शन देकर विभीषण से बोले – तुम सदा देवताओं का प्रिय कार्य करना तथा कभी उनका अपराध ना करना। तुम्हें देवराज की आज्ञा अनुसार ही राज्य करना चाहिए। यदि कोई मनुष्य भी लंका में जाए तो उसका वध मत करना, अपितु मेरे ही तुल्य समझ कर राक्षसों को उनका सत्कार करना चाहिए ।

विदा के समय विभीषण जी ने प्रभु श्रीराम को मेघनाद द्वारा इंद्र लोक से विजय चिन्ह के रूप में लायी हुए श्री वामन भगवान की मूर्ति को सब प्रकार के रत्नों से सुशोभित कर के उनसे उस मूर्ति को कान्यकुबज्य राज्य में स्थापित करने की प्रार्थना की। तथास्तु कह कर श्री रघुनाथ जी पुष्पक विमान पर आरूढ़ हुए और उनके पीछे असंख्य रत्नो और देवश्रेष्ठ श्री वामनमूर्ति को ले कर सुग्रीव और भरत भी आरूढ़ हुए । उस समय विभीषण जी ने प्रभु श्रीरामजी से कहा कि:

“प्रभु! आपने जो जो आज्ञा मुझे दी हैं मैं उन सब का पालन करूँगा, परंतु महाराज इस सेतु के मार्ग से असंख्य मनुष्य आ कर राक्षसों को सताएँगे? ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए?”

विभीषण की ऐसी प्रार्थना सुन कर प्रभु रघुनाथ जी ने हाथ में धनुष लेकर अपने बाण से सेतु के दो टुकड़े कर दिए । उसके पश्चात तीन विभाग करके बीच का दस योजन तोड़ दिया। उसके बाद एक स्थान पर एक योजन और तोड़ दिया । तदांतर वेलवान (वर्तमान रामेश्वर) में पहुँच कर महादेव की स्थापना करके विधिवत पूजन किया किया तथा गंगा तट पर महोदय तीर्थ में भगवान वामन जी को स्थापित पर दिया।

(संदर्भ – पद्म पुराण, सृष्टि खंड, ४० अध्याय, श्लोक ६-१३२)

(उपरोक्त से स्पष्ट है कि रामसेतु का विदीर्ण होना प्रकृतिक घटना नहीं है, वह स्वयं श्री राम द्वारा राक्षसराज विभीषण की सुरक्षा के लिए किया गया था)

।। ॐ नमों भगवते वासुदेवाय:।।

Author: मनीष

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