Home 2019 February 28 भगवान शिवजी को ‘पशुपति’ और ‘त्रिपुरारि’ क्यों कहा जाता है?

भगवान शिवजी को ‘पशुपति’ और ‘त्रिपुरारि’ क्यों कहा जाता है?

भगवान शिवजी को ‘पशुपति’ और ‘त्रिपुरारि’ क्यों कहा जाता है?

जब शिवनंदन श्री कार्तिकेय स्वामी जिन्हें स्कन्द भी कहा जाता है ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके तीनों पुत्र तारकाक्ष, विद्युनमालि और कमलाकाक्ष ने उत्तम भोगों का परित्याग करके मेरूपर्वत की कन्दराओं में ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए परम उग्र तपस्या आरम्भ की। तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी उनको वर देने के लिए प्रकट हुए।

ब्रह्म जी को साक्षात देखकर उन तीनों ने ब्रह्मा जी की स्तुति के पश्चात उनसे अजर अमर होने का वरदान माँगा। ब्रह्मा जी ने कहा की अमरत्व सबको नहीं मिल सकता, इस भूतल पर जो भी प्राणी जन्मा है अथवा जन्म लेगा वह अजर अमर नहीं हो सकता परंतु मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ , तुम अपने बल का आश्रय ले कर अपने मरण में किसी हेतु को माँग लो जिससे तुम्हारी मृत्यु से रक्षा हो जाए।

ऐसा सुन कर उन तीनों ने ब्रह्मा जी के कहा की अत्यंत बलशाली होने पर भी हमारे पास कोई ऐसा नगर या घर नहीं है, जहाँ हम शत्रुओं से सुरक्षित रह कर सुख पूर्वक निवास कर सकें, इसलिए आप हमारे लिए ऐसे तीन नगरों या ‘पुरों’ का निर्माण करवा दीजिए जो अत्यंत अद्भुत वैभव से सम्पन्न हो और देवता भी जिसका भेदन ना कर सकें। तारकाक्ष ने अपने लिए स्वर्णमय पुर को माँगा विद्युनमालि ने चाँदी के बने हुए पुर की इच्छा की और कमलाकक्ष ने अपने लिए कठोर लोहे बना हुआ बड़ा पुर माँगा।

उन तीनों के ऐसे वचन सुन कर ब्रह्मा जी ने महामायावी मय को तारकाक्ष, विद्युनमालि और कमलकाक्ष के लिए क्रमशः सोने, चाँदी और लोहे के उत्तम दुर्ग तैयार किए और इन तीनों को उनके हवाले करके स्वयं भी उन्ही में प्रवेश कर गया।

असुरों के हित में तत्पर रहने वाले मय ने अत्यंत सुंदर वैभव से परिपूर्ण नगरों का निर्माण किया और उनमे सिद्धरस रूपी अमृत के कुओं की भी स्थापना कर दी। उन तीनों पुरों मे प्रवेश करके वो तीनों तारकासुर पुत्र तीनों लोकों को बाधित करने लगे। उन्होंने इंद्र सही सभी देवताओं को परास्त कर दिया और तीनों लोकों और मुनिश्वरों को अपने अधीन कर सारे जगत को उत्पीडित करने लगे।

तारक पुत्रों के ताप से दग्ध हुए इंद्र सहित सभी देवता महादेव की शरण में आए और उनसे त्रिपुरा निवासी दैत्यों से जगत की सुरक्षा करने की प्रार्थना की । महादेव ने सभी देवताओं से कहा कि त्रिपुराधीष और त्रिपुरा निवासी पूजा, तप आदि से महान पुण्य कार्यों में लगे हुए हैं और ऐसा नियम है की पुण्यात्माओं पर विद्वानो को प्रहार नहीं करना चाहिए, मैं देवताओं के कष्ट को जानता हूँ परन्तु वो दैत्य भी पुण्यकर्मों से अत्यंत बलशाली हैं। जब तक तारक पुत्र वेदिक धर्म के आश्रित हैं, सब देवता मिलकर भी उनका वध नहीं कर सकते इसलिए तुम सब विष्णु की शरण में जाओ।

श्री विष्णु भगवान की माया से समस्त दैत्य वेदिक धर्म से विमुख हो गए, सम्पूर्ण स्त्री-पुरुष धर्म का विनाश होने के साथ ही तीनों पुरों में दुराचार और अधर्म का विस्तार हो गया। तारकाक्ष, विद्युनमालि और कमलकाक्ष ने भी समस्त धर्मों का परित्याग कर दिया।

तत्पश्चात, भगवान शिव ने अपने धनुष पर बाण चढ़ा कर उन तीनों पुरों पर छोड़ दिया। उनके उस बाण से सूर्यमंडल से निकलने वाली किरणो के समान अन्य बहुत से बाण निकले जिनसे उन पुरों का दिखना बंद हो गया और समस्त पुरवासी और पुराधीष भी निशप्राण हो कर गिर गए। सभी पुर वासियों और तारकक्ष, विद्युनमालि और कमलाकक्ष को मृत देख कर मय ने उन सब दैत्यों को उठा कर अमृत के कुओं में डाल दिया। अमृत स्पर्श होते ही सभी असुरों का शरीर अत्यंत तेजस्वी और वज्र के समान सुदृढ़ हो गया और महादेव और असुरों में पुनः भयंकर युद्ध छिड़ गया।

यह देख पर भगवान विष्णु ने गौ का रूप धारण किया, ब्रह्मा जी बछड़ा बने और अन्य देवताओं ने पशुओं का रूप बना कर महादेव जी की उपासना करके उनको को नमस्कार किया तथा तीनों पुरों में जाकर उस सिद्धरस के कुएँ का सारा अमृत पी गए। इसके बाद श्री विष्णु भगवान ने अपनी समस्त शक्तियों द्वारा भगवान शंकर के युद्ध की सामग्री तैयार की।

धर्म से रथ, ज्ञान से सारथी, वैराग्य से ध्वजा, तपस्या से धनुष, विद्या से कवच, क्रिया से बाण और आनी समस्त शक्तियों से अन्य वस्तुओं का निर्माण किया। भगवान शंकर ने उस दिव्य रथ पर सवार हो कर धनुष बाण धारण किया तथा अभिजीत मुहूर्त में बाण चला कर उन तीनों दुर्भेध पुरों को भस्म कर दिया। उन तीनों पुरों के भस्म होते ही स्वर्ग में दुंदुभियाँ बजने लगी और देवता, ऋषि, पितर और सिध्देश्वर आनंद से जय जय कार करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे।

क्योंकि पशु रूप में समस्त देवताओं ने अपने अधिपति के रूप में शिवजी की उपासना की इसलिए महादेव को ‘पशुपति’ भी कहा जाता है और उन तीनों पुरों को भस्म करने के कारण स्वरूप भगवान शंकर ‘त्रिपुरारि’ भी कहलाये।

“ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी
भानु शशि भूमि सुतो बुधश्च
गुरुश्च शुक्रः शनि राहु केतवः
सर्वे ग्रहाः शान्ति करा भवन्तु।”

।। ॐ नमो भगवते वसुदेवाय:।।
(संदर्भ – शिवपुराण तथा श्री मदभागवत महापुराण)

Author: मनीष

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